कामाठीपुरा…. बदनाम गलियाँ, सहमी गलियाँ, धधगती गलियाँ, इंसानियत पर कलंक, बर्बरता की परिसीमा... क्या क्या नाम लेकर यह इलाका १८वी सदी से दक्षिण मुंबई के बिलकुल नाक पर खड़ा है। साउथ बॉम्बे का नाम लेते ही जहां नजरों के सामने बड़ी बड़ी,आलीशान इमारतें, ईरानी, पारसी समुदाय के सफ़ेद, शांत, अकेले, सुनसान बंगले और पुराने ब्रिटिश वास्तुरचना की मजबूत इमारतें खड़ी रहती हैं, वहाँ उन्ही के बीचोबीच यह बदनाम इलाका खड़ा है…. कुछ सुपर पावर देशों के बीच जैसे कोई तीसरी दुनिया बसी हो....
२ शतकों के बाद भी इन लाल गलियों पर लगा धब्बा अभी तक मिटा नहीं है.... और इसकी वजह है यहाँ के बदनाम लाल बत्ती को मिला हुआ उछाल। कामाठीपुरा सिर्फ वो ही नहीं है जो खबरों में दिखाया या सिनेमा में दिखाया जाता है। उससे कई ज्यादा बढ़कर उसकी पहचान है। कई सारे आंदोलनों का यह गढ़ रहा है। पूरी दुनिया ने जिस आंदोलन को सराहा, बर्बर मानव समाज को जिसने झँझोड़कर रख दिया, समता की असली परिभाषा पूरी दुनिया को जिसने अपने करतूतों के बल पर सिखाई, चिंतक जिसका अभ्यास करते है, पीएचडी करते है, किसी भी शासन और रूढ़ि परंपरा विरोधी आंदोलन की तुलना जिसके साथ की जाती है उस “दलित पैंथर” के आंदोलन की जन्मभूमि, कर्मभूमि और युद्धभूमि भी रहा है यह कामाठीपुरा। आज इसके बारे में बताने की वजह बनी है उसका होने वाला समूह पुनर्विकास। शायद कुछ सालों बाद कामाठीपुरा की गलत  पहचान पूरी तरह से मिट जाएगी और वह नए रंगरूप में सजाधजा होगा... तब शायद हम कुछ बातों को याद कर सके, इसलिए यह लेखन....  

मुंबई जब सात खंडों में बटी थी तब ब्रिटिश सरकार ने उसे एक ही अखंड खंड में परिवर्तित करने की योजना बनाई। तत्कालीन बॉम्बे के ब्रिटिश गवर्नर विल्यम हॉर्न्बी (१७७१-१७८४) ने मुंबई को एक खंड बनाने के लिए जमीन और समुंदर के नीचे प्रकृतिक बन्दरगाह बनाकर सात खंडों को जोड़ने वाला एक कॉजवे बनाने की परियोजना बनाई जिसका नाम था हॉर्न्बी वेलार्ड। वेलार्ड शब्द का पोर्तुगीज भाषा में अर्थ है फेंसिंग या तटबंदी। इस कॉजवे का मकसद वर्ली खाड़ी को निरोध करना और उफान के वक़्त आने वाली बड़ी बड़ी और ऊंची लहरों से निचले स्तर के इलाकों को बचाना। 

१७९५ तक कॉजवे बन गया और आज ही की तरह पूरे देश से लोग यहाँ नौकरी की तलाश में आकर बसने लगे। ज़्यादातर लोग उस वक़्त लाल बाज़ार के नाम से पहचाने जाने वाले आज के कामाठीपुरा रहने लगे। लेकिन उनमे से ज़्यादातर लोग ब्रिटिश इमारतों के कन्स्ट्रकशन साइट्स पर काम करने वाले देहाड़ी मजदूर थे और स्थानिक मराठी भाषा में उन्हे कामाठी कहा जाता था इसलिए  इस इलाके का नाम धीरे धीरे कामाठीपुरा पड़ गया।

१९ वी शताब्दी के अंत और २० वी शताब्दी के शुरुआत में ब्रिटिश सैनिकों और भारतीय स्थानिक पुरुषों का मनोरंजन करने के लिए यूरोपियन और जापानी लड़कियां ट्राफिक कर के यहाँ लाना शुरू हो गया था। जो आज का शुक्लाजी स्ट्रीट है वहाँ इन लड़कियों के लिए आशियाना बनाया गया था और उसे सफ़ेद गली कहा जाता था। उसी को प्लेहाउस भी कहा जाता था जिसका विडंबन होकर उसे अब पीला हाउस कहा जाता है। सालो बाद यहाँ नेपाली लड़कियों को भी ट्राफिक कर लाया गया था। उनकी देखा देखी पैसे कमाने के लिए स्थानिक लड़कियां भी इसमे शामिल हो गई। 

कामाठीपुरा १४ गलियों में फैला हुआ है लेकिन इनमें सबसे ज्यादा बदनाम है पहली गली। उस जमाने में जिस्म फरोशी का धन्दा तवायफ और कोठेवाले कला के नाम पर चलाते थे। इसलिए कानून का डर किसी को भी नहीं था। बीमारियाँ होती थी लेकिन इस धंधे से वो हो रही है इसकी पहचान नहीं थी और पहचान हो भी तो क्या करती? क्योंकि तब इसके बारे में जागृति ही नहीं थी। पहला वेनेरल डिसिज का दवाखाना भी १९१६ में खुला और बीएमसी के पास उसे १९२५ में हस्तांतरित किया गया।

कामाठीपुरा के चौदह गलियों में हर धर्म के लोग रहते हैं। लेकिन यहाँ पुराने गाँव खेड़े जैसे समुदाय देखने को मिलते है। ज़्यादातर निचले तपके के लोग यहाँ आकर बस गए हैं। सालों पहले कामाठीपुरा की पहली गली में मुंबई महानगर पालिका में सफाई कर्मचारी के तौर पर काम करने वाले चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के लिए "सिद्धार्थ नगर" नाम की तीन चार इमारतों की एक बस्ती बसाई गई थी। वहाँ सफाई कर्मचारी अपने परिवारों के साथ रहते थे और उनकी आज की पिढी आज भी वहाँ रहती हैं। यह सभी कर्मचारी समाज व्यवस्था के निचले तपके के थे, जिन्होने १९५६ में डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर के नेतृत्व में बौद्ध धम्म का स्वीकार किया था। पहली गली की ही तरह यहाँ हर गली के हिन्दू मुस्लिम की झुग्गी बस्तियाँ और इमारतें आमने सामने होती थी और आज भी है। एक ही इलाके में मंदिर, मस्जिद और बुद्ध विहार हैं। आज यहाँ उत्तर प्रदेश और बिहार से आनेवाले लोगों की बस्तियाँ बढ़ गई हैं। स्कूल और दवाखाने हैं लेकिन उनके हालात यहाँ के लोगों से अलग नहीं है। 

 स्टील और कपड़ा उद्योग के चलते यहाँ की छोटी छोटी गलियों से लंबी लंबी हाथ गाड़ी पर ट्रांसपोर्ट का व्यवसाय चलता है। इन गलियों के हर एक मोड पर आप स्टील के पुरजे और कपडों के गड्ढो से भरे कमरे देख सकते हैं। यहाँ की ज़िंदगी मुंबई के अन्य लोगों की तरह नहीं है। लेकिन यहाँ के पुराने नागरिक आज भी अपने इस भागदौड़ और शोरगुल वाली छोटीसी दुनिया से बेहद प्यार करते हैं। 

जहां कामाठीपुरा है उसके बिलकुल 2 किलोमीटर पर गवालिया टँक है जहां ८ ऑगस्ट का गांधीजी की पुकार पर “चले जाओ” आंदोलन छेड़ा गया था। इसलिए आप अंदाजा लगा सकते हैं की कामाठीपुरा जैसे मजदूरों के बस्ती में इस आंदोलन को लेकर क्या माहौल रहा होगा। आज भी लोग उस क्रांति दिन ८ ऑगस्ट को याद करने के लिए उस गार्डन में जमा होते है।
ब्रिटिश तो अपना बाड़ बिस्तरा समेट कर चले गए लेकिन वहाँ आई औरते उसी अँधियारे में रह गई। सिर्फ ग्राहक बदले, बेचने वाले जिस्म वही रह गए। हालात और भी तब बिगड़े जब इस लाल धंधे के साथ ड्रग्ज के काले धंधे का नाम जुड़ गया।    



लेकिन.... लेकिन.... लेकिन। १९७२ के दौरान “दलित पैंथर” का आंदोलन पहली गली के सिद्धार्थ नगर में रहने वाले ज. वि. पवार, नामदेव ढसाल और उनके साथियों ने छेड़ा। यह आंदोलन आज़ादी के बाद भी गाँव क़सबों में निचली जाती के लोगों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ था। दक्षिण अफ्रीका के ब्लॅक पैंथर की तर्ज पर इसका निर्माण हुआ था और यह बहोत ही तेज तर्रार युवकों का संगठन माना जाता था। इसी के नेता नामदेव ढसाल ने १९७३ में “गोलपीठा नाम का कविता संग्रह लिखा और सारस्वतों की दुनिया में हड़कंप मच गया। क्योंकि इसमे उन्होने लाल बस्तियों में पीसने वाली लड़कियों के बारे में लिखा था। नामदेव ढ़साल के इस कविता संग्रह के पहले यह बदनाम गलियाँ किसी दूसरी दुनिया का हिस्सा थी लेकिन उसके बाद संवेदनशील लोग इसके बारे में लिखते रहे और उसमे बहुत सारे परिवर्तन आने लगे। आज सेक्स वर्कर के बच्चों के लिए सरकार ने जो योजनाएँ बनाई है। उसकी मांग भी सबसे पहले नामदेव ढ़साल ने ही रखी थी। और इसके लिए वो मंत्रालय पर सेक्स वर्कर्स का मोर्चा लेकर गए थे। वो पहली बार था जब चेहरे पर रंग लगाने वाली और अपने कोठे पर डरी सहमी रहने वाली लड़कियां अपने हक के लिए सड़कों पर उतर आई थी। यहाँ रहने वाली कई औरतें आज अपने अपने गाव या किसी दूसरे शहर चली गई है।   

     
५० एकर में फैले इस इलाके में १००० से ज्यादा इमारतें है, ७०० तरह के अलग अलग रचनाएँ जैसे कि चाल, झुग्गी, बंगलो है। कई तो १०० साल से भी पुरानी है। यहाँ अब भी ज़्यादातर मजदूर ही बसते हैं और अपने ही हाथों से अपनी नजरों के सामने मुंबई को ऊंचा और ऊंचा होते देखते हैं लेकिन खुद ५० से लेकर १८० स्क्वेअर फिट के घर में रहते हैं। महाराष्ट्र शासन ने आज ही इसके पुनर्विकास की प्रक्रिया शुरू की है और उसके लिए गृहनिर्माण मंत्री जितेंद्र आव्हाड ने म्हाड़ा और अन्य विकासकों के साथ बातचीत शुरू कर दी है। आज वो खुद कामाठीपुरा जाकर वहाँ के नागरिकों से मिले और उन्हे अच्छा रहन सहन और अच्छा जीवन देने का वादा किया। विकास हमेशा अच्छा ही होता है। और वो सबसे ज्यादा जरूरतमंदों का हो तो पूरा शहर अमीर होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी।